October 18, 2009

"कुछ राहें"

कुछ राहें
आज भी उधर को ही जाती हैं
कारवां का कारवां
आज भी गुजरता हैं उनसे
बस मैं डरता हूँ
उनतक पहुँचने वाली पगडंडियों से भी
डरूं भी क्यों नहीं
जानता था
और अब मानता भी हूँ
मंजिल पे दिखने वाला
वो धरा - गगन का मिलन
मिलन नहीं
बिछोह का शिलालेख हैं

October 8, 2009

"मन का मिलन, मिलन क्यों नहीं ?"

अभी कुछ दिनों पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा कि, "यार, तू कब से कमिटेड हो गया? और कौन हैं वो खुशनसीब?" यह सवाल ना जाने मेरे कितनो ही दोस्तों के दिल में होगा| पर, उनमे से अब तक बहुत कम ने मुझसे ये पूछा था| और अब तक मैं सबको यहीं कहता आया की वक़त आने पर बता दूंगा, कौन हैं जिसने इस दिल पर राज करने का अधिकार मुझसे भी छीन लिया हैं| जानते हैं अब तक क्यों छिपाया, डरता था की कहीं खो ना दूँ उसे| क्योंकि अब तक मेरे करीब आने वाले हर शख्स को ना जाने क्यों मुझ से छीन लिया गया हैं| कोई था, जो बहुत करीब था, जिसके बिना सब कुछ अधुरा सा लगता था, जिसे मिले बिना कुछ भी अच्छा ना लगता था, और भी ना जाने कितने ही ऐसी बातो को लिखा सकता हूँ| खैर, अब क्या फायदा जो नहीं हैं, उसकी बातें करके| उसके जाने के बाद सोचा था, फिर किसी को ना आने दूंगा इतने करीब कि उसके जाने के बाद जीने को दिल ना करे|

पर वो कहते हैं, "खुदा की खुदाई से कोई भी ना लड़ पाया"| मैं भी ना लड़ पाया, उस खुदा की खुदाई से| उसने पुरे नौ साल के बाद मुझे फिर से उसी राह पर ला खड़ा किया, जिसकी मंजिल के बारे में सोच कर भी मैं घबराता था| और उसने मुझे ख़ुद कहा कि, "चल बन्दे मैं तेरे साथ हूँ"| मैं चीखता रहा कि,"मुझे मत डाल इस लफडे में"| पर उसने कब सुनी थी मेरी, जो उस वक़त सुनता| खैर इस बार मेरे हमराही ने मुझे साथ चलने के बड़े - बड़े वादे किए| और "मरते को दो बूंद पानी ही काफी होता हैं, प्यास बुझाने को"| मैंने भी आने वाले को रोका नहीं| और मैं ना जाने कब ख़ुद से खो कर उसका हो गया| इन सब के बारे में मेरे कुछ ही दोस्तों को मालूम हैं| और जिन्हें भी मालूम हैं, वो भली तरह जानते हैं कि मैं कैसे चला इस राह पर, जिसे मैंने नहीं मेरे हमराही ने चुना था| हाँ अब तो यह भी नहीं कह सकता कि मैंने नहीं चुना था| अपनी गलतियों के लिए "दुसरे" को क्यों जिम्मेवार ठहराऊ| पर, दिल यह सोचने को मजबूर कर देता हैं कि, "मिला क्या मुझे इन सब के बावजूद"|

तभी याद आता हैं कि, गीता के रें अध्याय के ४७ वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा हैं, - "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन| मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संड्गोअस्त्वकर्मनि || " अर्थात, " तेरा कर्म मरने में ही अधिकार हैं, उसके फलों में कभी नहीं| इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति हो|" कम से कम सात या आठ बार तो पढ़ ही चुका हूँ, गीता को| एक यही तो हैं जिसने जीना सिखाया हैं| वरना इस दुनिया ने तो सिर्फ़ मरने को उकसाया हैं| आजकल गीता फिर से पढ़ रहा हूँ, जीने के लिए| क्यूंकि अभी कुछ दिनों पहले मरने की सोच दिल में फिर से घर कर गई थी| शायद आप सोचेगे, "क्यों"| अब डरता नहीं हूँ खोने से| सो बता ही देता हूँ आप सबको| मेरे इस हमराही ने भी बीच राह में साथ छोड़ दिया| साथ तो पहले वाले हमराही ने भी छोड़ा था| पर मैं जानता हूँ कि उसने अपनी मर्जी से नहीं छोड़ा था| उस से तो उपरवाले ने छुड़वाया था, अपने पास बुला कर| और अबकी बार के हमराही ने तो....

अब सवाल यह उठता हैं कि, "क्या मैं अब भी कमिटेड हूँ?" तो, "हाँ ! मैं अब भी कमिटेड हूँ"| मेरे कुछ दोस्तों ने मुझ से कहा कि, "अब क्यों जीना उसके लिए, जिसने तेरे साथ जीने के सारे वादें तोड़ दिए| क्यों उसके लिए जीवन भर जीने की सोच रहा हैं| उसके लिए जीने को तैयार हो जा, जो अब आएगी|" ऐसा उन्होंने इस लिए कहा क्योंकि मैंने सोच लिया हैं कि अब कोई नहीं आएगा इस जीवन में| वैसे भी हिंदू धर्म में विवाहित को दूसरा विवाह करने की अनुमति नहीं हैं| अब शायद आप सोचेगे कि विवाह कब हुआ| तो मैं आपसे पूछता हूँ कि, "क्या मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र डालने से ही विवाह होता हैं| मन का मिलन क्या मिलन नही|" अगर हैं तो क्या मैं विवाहित नहीं हुआ| और क्या अब आपका और मेरा धर्म मुझे दूसरा विवाह करने कि अनुमति देगा| और सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि इन सब को जानने के बाद कौन सी लड़की मेरी दूसरी पत्नी बनकर आना चाहेगी? और अगर कोई तैयार भी हो जाए तो क्या मैं फिर से नौ साल लूँगा, उसे उसका अधिकार देने में| कम से कम मैं तो यह नहीं चाहता| सो सोचा हैं कि कमिटेड था, हूँ और रहूगा... ... ...