June 25, 2010

अब तुमसे बातें नहीं हो पाती हैं | पर दिल आज भी तुमसे बातें करता हैं | ये बात दूसरी हैं कि वो सिर्फ दिल ही दिल में बातें करता हैं |

June 15, 2010

" वो पूछते हैं ... "

वो पूछते हैं ...
मुझ से
क्या हुआ हैं तुझे
क्यूँ जीने की चाह नहीं हैं
कुछ तो हुआ ही होगा
मैं सोचता हूँ
फिर कहता हूँ
न जाने उनसे या खुद से
पर कहता हूँ
कुछ भी तो नहीं हुआ
और जीने की चाह क्यूँ नहीं
हैं ना तभी तो जी रहा हूँ
कुछ भी तो नहीं हुआ
पर तभी दिल धीमे से
दिमाग से कहता हैं
झूठ बोल रहा हैं

June 12, 2010

पता नहीं मैं ही क्यों अब तक उसके बारे में सोच रहा हूँ| पता नहीं वो मेरे बारे में सोच रहा हैं या नहीं ? खैर वो सोच रहा हैं या नहीं, यह सोचने के लिए दिल ने मौका ही कहाँ दिया|

May 2, 2010

"मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ"

रात के ३ बजे रहे हैं और आँखे सोने की जिद्द करती-करती रोने लगी हैं| पर दिमाग या यूँ कहे की दिल हैं कि उसकी सुनता ही नहीं हैं| जाने क्यूँ पिछले तीन दिनों से यही हाल हैं| पहले दिन तो सोचा कि आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा हैं| दुसरे दिन भी यही सोचता रहा कि मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ हो रहा हैं| आखिर क्यूँ ? ? ? मैं ही क्यूँ ? ? ? क्यूँ बुझ गया मेरा ही हर दिया ? ? ? जो भी मिला, उसे खोया मैंने ही क्यूँ ? ? ? जाने ऐसे और ना जाने कितने ही ऐसे सवालों का जवाब मांग रहा हूँ, मैं एक बार फिर| सोचता सोचता ना जाने कितना उलझ गया हूँ|

ग़म भी ना कैसा हैं कि साथ ही नहीं छोड़ रहा हैं| सब छोड़ गए हैं| पता नहीं इसे ही मुझ से कितना प्यार हैं कि साथ नहीं छोड़ रहा हैं| कम्बख्त जीने भी नहीं दे रहा और मरने भी नहीं दे रहा हैं| पर शायद इसे भी नहीं पता कि मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ| जो ठान लिया उसे कर के ही छोड़ता हूँ| पर क्या करू अभी तक कुछ ठाना ही नहीं हैं| और यह भी इसी का फायदा उठा रहा हैं| वैसे ये कर भी तो कुछ गलत नहीं रहा हैं| जो सबने किया हैं, वही ये भी कर रहा हैं| और मुझे भी अब तक इसकी आदत पड़ जानी चाहिए| पर गलतियों से तो इंसान सीखते हैं और मैं ठहरा जानवर|

ग़म के चुल्लू में ही डूब कर मर जाने कि सोचता हूँ| पर कम्बख्त ये भी नहीं करने दे रहा हैं| जब भी डूबने की कोशिश की हैं, साले ने चुल्लू ही नहीं बनाया| पर शायद इसे भी नहीं पता कि मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ| हा! हा! हा!......

May 1, 2010

"हैं कोई दवा"

मरने से डरने लगा हूँ, क्यूँकि कभी सुना था कि जिसकी कोई भी दिली तमन्ना अधूरी रह जाती हैं तो मरने के बाद उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती हैं और मेरी तो ना जाने कितनी ही अभी बाकी हैं| और मैं ये भी नहीं चाहता कि मरने के बाद तुम्हे परेशान करूँ| जीते जीते ना जाने तुमे कितना परेशान किया हैं| ऐसा तुम सोचते हो| मैं नहीं| वैसे भी मैंने तुमसे प्यार किया हैं, तुम्हे कैसे परेशान कर सकता हूँ| ये बात और हैं कि तुम्हे अब मेरा प्यार परेशानी लगने लगा हैं|

कल तक मेरे जिस प्यार की सब कसमें लिया करते थे| आज उसी प्यार से सब सबक ले रहे हैं| मुझे ग़म इस बात का नहीं कि तुमने मेरे प्यार की कद्र ना समझी| अब तो ग़म सिर्फ इस बात का हैं कि मेरे प्यार की वजह से कुछ लोगों का प्यार से विश्वास उठ गया| ग़म तो इस बात का हैं कि मैं उन्हें समझा भी नहीं सकता| क्यूंकि जिसके खुद के गिराबां में दाग हो, वो बोले भी तो किस मुहं से| ग़म तो इस बात का हैं कि मैं उनसे कैसे निगाहें मिला पाउगा, जिनसे मैं तुम्हे पाने के लिए लड़ पड़ा था| अब जब वो मुझ से मेरे प्यार का हिसाब मांग रहे हैं, तो मैं आधे बलि चढ़े मेमने सा गर्दन निचे गिराए, उनसे ज़िन्दगी की भीख मांग रहा हूँ| हूँ....|

हैं कोई दवा इन सब ग़मों का, आपके पास डॉ. साहिबा|

March 29, 2010

फ़िलहाल एम. टेक. के फ़ाइनल प्रोजेक्ट को लेकर कुछ ज्यादा ही वयस्त हूँ| इसी वजह से यहाँ कुछ खास लिख नहीं पा रहा हूँ|

March 8, 2010

"माँ !!!"

सिमटा हैं जिसमें सारा संसार,
करती हैं जो सबके सपनों को साकार,
जुडा हैं जिससे हर दिल का तार,
समाया हैं जिसमें मेरा आकार,

माँ ! तुने ईश्वर को जना हैं,
संसार तेरे ही दम से बना हैं,
तू मेरी पूजा हैं, मन्नत हैं मेरी,
तेरे ही कदमों में जन्नत हैं मेरी,

माँ !!!
वो माँ ! तुझे सादर प्रणाम |

--- मेरी खुद की कविता, जिसे मैंने अपनी माँ के जन्मदिन पर उनके लिए लिखी थी| सोचा, आज विश्व महिला दिवस पर यही कविता लिखी जाये, ब्लॉग पर |

March 1, 2010

लेखनी साथ नहीं दे रही हैं पिछले कुछ दिनों से| दिल में ना जाने कितनी संवेदनाये उबल रही हैं| पर मेरे पास रखे तुम्हारे सारे ख़त खत्म हो गए हैं जिनके पिछले पन्ने पे मैं लिखा करता था.... और तो और तुम्हारे दिए लेखनी की स्याही भी कुछ जम सी गयी हैं| मैंने तुमसे कहा था, "ना दो मुझे ये लेखनी, ना जाने कब मैं लिखना भूल जाऊ"| पर तुम हो की माने ही नहीं| दे गए मुझे अपनी लेखनी| अब बताओ कहाँ लिखू और लिखू भी तो कैसे लिखू, जब लेखनी ही जम गयी हैं|
कभी सोचा भी नहीं था कि ज़िन्दगी में ये भी मोड़ आयेगा| जब ये लम्बी, तन्हा ज़िन्दगी तुम्हारे बगैर मुझे यूँ काटनी पड़ जाएगी| तुम ने नहीं जाने क्या सोचा होगा| नहीं जाने मुझे कितना सहनशील समझा होगा| पर सच कहू तो अब और सहने की हिम्मत नहीं रह गयी हैं|

January 18, 2010

"अबकी जो आना राम"

अबकी जो आना
राम
तो गले में तख्ती डालकर आना
जिसपर लिखा हो -
तुम्ही हो
मर्यादा पुरुषोत्तम
दशरथ नंदन
अयोध्याधिपति
राम
हाँ! वही राम -
जिसने सीता का वरन किया था
वही सीता -
जो जनक नंदिनी
पतिव्रता
मानिनी थी
वरना
किन - किन के सवालों का जवाब दोगें
क्या - क्या सबूत पेश करोगें
ताकि सिद्ध कर सको कि
तुम राम हो?
और
सीता का सिर्फ और सिर्फ तुम्ही से संबंध था और हैं?

--- कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्याविध्यालय में कुछ प्राध्यापकों ने राम और सीता के होने और उनके पवित्र रिश्ते पर ऊँगली उठाई थी| उसकी प्रतिक्रिया हैं ये कविता|