March 1, 2010

लेखनी साथ नहीं दे रही हैं पिछले कुछ दिनों से| दिल में ना जाने कितनी संवेदनाये उबल रही हैं| पर मेरे पास रखे तुम्हारे सारे ख़त खत्म हो गए हैं जिनके पिछले पन्ने पे मैं लिखा करता था.... और तो और तुम्हारे दिए लेखनी की स्याही भी कुछ जम सी गयी हैं| मैंने तुमसे कहा था, "ना दो मुझे ये लेखनी, ना जाने कब मैं लिखना भूल जाऊ"| पर तुम हो की माने ही नहीं| दे गए मुझे अपनी लेखनी| अब बताओ कहाँ लिखू और लिखू भी तो कैसे लिखू, जब लेखनी ही जम गयी हैं|
कभी सोचा भी नहीं था कि ज़िन्दगी में ये भी मोड़ आयेगा| जब ये लम्बी, तन्हा ज़िन्दगी तुम्हारे बगैर मुझे यूँ काटनी पड़ जाएगी| तुम ने नहीं जाने क्या सोचा होगा| नहीं जाने मुझे कितना सहनशील समझा होगा| पर सच कहू तो अब और सहने की हिम्मत नहीं रह गयी हैं|

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