May 2, 2010

"मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ"

रात के ३ बजे रहे हैं और आँखे सोने की जिद्द करती-करती रोने लगी हैं| पर दिमाग या यूँ कहे की दिल हैं कि उसकी सुनता ही नहीं हैं| जाने क्यूँ पिछले तीन दिनों से यही हाल हैं| पहले दिन तो सोचा कि आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा हैं| दुसरे दिन भी यही सोचता रहा कि मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ हो रहा हैं| आखिर क्यूँ ? ? ? मैं ही क्यूँ ? ? ? क्यूँ बुझ गया मेरा ही हर दिया ? ? ? जो भी मिला, उसे खोया मैंने ही क्यूँ ? ? ? जाने ऐसे और ना जाने कितने ही ऐसे सवालों का जवाब मांग रहा हूँ, मैं एक बार फिर| सोचता सोचता ना जाने कितना उलझ गया हूँ|

ग़म भी ना कैसा हैं कि साथ ही नहीं छोड़ रहा हैं| सब छोड़ गए हैं| पता नहीं इसे ही मुझ से कितना प्यार हैं कि साथ नहीं छोड़ रहा हैं| कम्बख्त जीने भी नहीं दे रहा और मरने भी नहीं दे रहा हैं| पर शायद इसे भी नहीं पता कि मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ| जो ठान लिया उसे कर के ही छोड़ता हूँ| पर क्या करू अभी तक कुछ ठाना ही नहीं हैं| और यह भी इसी का फायदा उठा रहा हैं| वैसे ये कर भी तो कुछ गलत नहीं रहा हैं| जो सबने किया हैं, वही ये भी कर रहा हैं| और मुझे भी अब तक इसकी आदत पड़ जानी चाहिए| पर गलतियों से तो इंसान सीखते हैं और मैं ठहरा जानवर|

ग़म के चुल्लू में ही डूब कर मर जाने कि सोचता हूँ| पर कम्बख्त ये भी नहीं करने दे रहा हैं| जब भी डूबने की कोशिश की हैं, साले ने चुल्लू ही नहीं बनाया| पर शायद इसे भी नहीं पता कि मैं भी बड़ा जिद्दी किस्म का जानवर हूँ| हा! हा! हा!......

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